भारतीय वित्त मंत्रालय ने गत दिन कई सुधार प्रस्तावित किए, जैसे कि श्रमकानूनों को सरल बनाना, न्यूनतम वेतन निर्धारित करना, गिग और असंगठित मजदूरों को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना, और एक-राष्ट्र-एक-राशन। यह सभी सुधार अर्थव्यवस्था प्रोत्साहित करने के लिए बहुत अच्छे वादे हैं। लेकिन यह वादे हैं। हमें पिछले साल इन सुधारों की उम्मीद थी जब सरकार को भारी बहुमत मिला, लेकिन पिछले साल सरकार ने ग़ैर आर्थिक मुद्दों को प्राथमिकता दिया।
राजनीतिक वर्ग अभी भी प्रवासियों और गरीबों की तत्काल स्थिति को समझने में असमर्थ है। CMIE सर्वेक्षण कहता है कि एक तिहाई से अधिक भारतीय घरों में एक और सप्ताह के लिए संसाधन नहीं हैं। लोग अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। करोड़ों प्रवासी मज़दूर, बिन पैसे और भोजन, दूसरे प्रांतों में फँसे, घर वापस जाने की गुहार कर रहे हैं। स्थिति अत्यंत ही दुष्कर है। दीर्घकालिक उपायों के रूप में, आर्थिक सुधार के साथ-साथ ऋण प्रावधान अच्छे उपाय हैं, लेकिन गरीब और प्रवासी परिवारों की मदद के लिए अल्पकालिक उपाय बहुत कम किए जा रहे हैं। जब अन्य देश स्टिम्युलुस पैकेज के बारे में बात करते हैं, तो इसमें आम तौर पर नकद ट्रान्सफर और पेचेक सुरक्षा कार्यक्रम शामिल होते हैं। उदाहरण के लिए यूके में एक फर्लो स्कीम है जहां सरकार श्रमिकों के वेतन का 80 प्रतिशत तक भुगतान करती है यदि कंपनियां उन्हें अपने पेरोल पर रखती हैं। यूएसए ने अपने नागरिकों को $ 1200 दिए हैं। यह समझ से परे है कि केंद्र सरकार को 3200 करोड़ रुपये खर्च करने वाली मुफ्त अनाज योजना की घोषणा करने में लॉकडाउन के बाद से 50 दिन क्यों लगे। इस तरह की योजना पहले दिन से दी जानी चाहिए थी। 3200 करोड़, 20 लाख करोड़ के सामने कुछ भी नहीं। सरकार का कहना है कि रोज़गार के अच्छे अवसर अब इस पैकेज के बाद ग़रीबों को मिलेंगे। पर यह तब होगा जब अर्थव्यवस्था की बुनियाद सशक्त होगी। भारत की अर्थव्यवस्था इन ही मज़दूरों के कंधों पर निर्भर है। यदि मज़दूरों के कंधे टूट गए तो अर्थव्यवस्था भी नहीं संभलेगी। सरकार को यह समझ में शायद नहीं आ रहा है कि अर्थव्यवस्था के दो पक्ष हैं - आपूर्ति और मांग। घरेलू खपत की मांग के बिना अर्थव्यवस्था कैसे चलेगी? कारोबार किस को बेचेंगे? नौकरियाँ भी किसी माँग की आपूर्ति के लिए ही होती हैं, और व्यवसाय मात्र को क़र्ज़ देकर यह माँग नहीं बढ़ेगी। देश का स्टॉक बाज़ार भी इस सिद्धांत को समझ रहा है, जिस कारण आज स्टॉक मार्केट स्टिम्युलुस पैकेज के बाद भी गिर रहा है। सिर्फ चना और खाद्यान्न प्रदान करना स्टिम्युलुस पैकेज नहीं है, यह एक सर्वाइवल पैकेज है जो 50 दिन देर से आया है। देश का गरीब सिर्फ़ मज़दूर नहीं, कोई मशीन नहीं, वो इंसान भी है, उसकी भी गृहस्थी है, उसके परिवार की भी कुछ आवश्यकताएँ है, जो मात्र कुछ किलो गेहूं से नहीं पूर्ण हो सकते। उनके द्वारा अर्जित माँग अर्थ्यवस्था और व्यापार की वृद्धि करता है। जब जन धन योजना, आधार कार्ड, और मोबाइल बैंकिंग के त्रिकोण से देशमें एक क्रांति हुई है, तो इस क्रांति का प्रयोग कर ग़रीबों को नक़द ट्रांसफ़र के रूप में लाभ पहुँचने में देरी क्यूँ। ये समय है इस त्रिकोण को और अधिक सुदृढ़ बनाने का, ताकि देश का हर व्यक्ति आपातकाल में इस त्रिकोण द्वारा राहत प्राप्त कर सके। इसी कारण हमारी यह प्रस्तावना रही है कि भारत कीजीडीपी का 1% नकद ट्रान्सफर भारत की 25% ग़रीब आबादी को बेशर्त मिले।क्या भारत की अर्थव्यवस्था का 1% भी भारत के 25% सबसे ग़रीब भारतियों को नहीं मिल सकता? इस प्रकार का नकद ट्रान्सफर एक चिंगारी के समान है, जो आर्थिक एंजिन को पुनः शुरू करेगा, और देश के सबसे गरीब को आर्थिक स्वतंत्रता भी देगा। स्थिति निर्लज्ज सी लगती है। मीडिया एक संदिग्ध दावे का जश्न मना रहा है कि भारत का स्टिम्युलुस पैकेज विश्व के सबसे बड़े और सबसे उदार स्टिम्युलुस पैकेजों में से एक है। जबकि पृष्ठभूमि में प्रवासी और उनके बच्चे अपने अस्तित्व के लिए दर्दनाक यात्रा कर रहे हैं और पुलिस उन्हें डंडे बरसा रही है। प्रचार और वास्तविकता के बीच का द्वंद्व और अधिक स्पष्ट नहीं हो सकता।
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May 2021
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